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मोक्ष क्या है?

मोक्ष क्या है? श्रीमद्भागवत कहता है-


"मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः।" ( श्रीमद्भागवत महापुराण २.१०.६ )


आत्मा जो देहेन्द्रियादिरूप उपाधि के तादात्म्याध्यास कर्त्तृत्व से भोक्तृत्वादि अनेकानर्थ युक्त सा प्रतीत होता है, उसका सब प्रकार के सजातीय, विजातीय और स्वगत भेदों को छोड़कर अपने शुद्धस्वरूप में स्थित होना ही मुक्ति है। 


वैष्णवाचार्य कहते हैं कि जीव ब्रह्म का नित्य दास है; अतः भगवद्विप्रयोग को छोड़कर उसका भगवत्सान्निध्य में स्थित होना ही मुक्ति है तथा जो मधुर भाग वाले हैं, वे ऐसा मानते हैं कि जीव जो प्राकृत स्त्री-पुरुषादि भावों को प्राप्त हो गया है, उसका इनसे छूटकर गोपीभाव में स्थित होना ही मुक्ति है।

moksha


जीव सत्य भी है और मिथ्या भी। ऐसा होने पर ही उसमें बन्ध और मोक्ष की सिद्धि हो सकती है। जीव स्वरूप से तो नित्य है, किन्तु अन्तःकरणादि विशेषण विशिष्ट होने के कारण अनित्य भी है, जिस प्रकार आकाशरूप से तो नित्य है, किन्तु घटरूप विशेषण के नाशवान होने के कारण अनित्य भी हैं, क्योंकि विशेषण के अभाव से भी विशिष्ट का अभाव माना जाता है। विशिष्ट वस्तु का अभाव तीन प्रकार से माना गया है-1. विशेषणाभावप्रयुक्त विशिष्टाभाव; 2. विशेष्यभावप्रयुक्त विशिष्टाभाव और 3. उभयाभावप्रयुक्त विशिष्टाभाव; अर्थात विशेषण, विशेष्य और उन दोनों के अभाव के कारण होने वाला अभाव; जिस प्रकार दण्डी पुरुष का अभाव दण्डाभाव, पुरुषाभाव अथवा इन दोनों का ही अभाव होने पर भी माना जाता है; जिस तरह घटाकाश का परिच्छिन्नत्व घटरूप उपाधि के ही कारण है, उसी प्रकार उपाधि संसर्ग के कारण ही पूर्ण परब्रह्म में जीव भाव है। भगवान भाष्यकार कहते हैं-


 

“एकमपि सन्तमात्मानमनेकमिव अकर्तारं सन्तं कर्तारमिव अभोक्तारं सन्तं भोक्तारमिव मन्यन्ते इत्येव जीवस्य जीवत्वम्।”


अतः उपाधि के मिथ्यात्व के कारण जीवत्व भी मिथ्या है और उपाधि के असम्बन्ध से वह सत्य भी है। यह अवच्छेदवाद की प्रक्रिया है।


इस प्रकार आभास और निरोध दोनों ही मिथ्या हैं तथा ये दोनों जिसमें अधिष्ठित होने से सिद्ध होते हैं वह परब्रह्म ही आश्रय नाम दसवाँ तत्त्व है। इसका दशम स्कन्ध में निरूपण किया गया है। ‘दशमे दशमों हरिः’ पहले नौ स्कन्ध इसी की परिशुद्धि के लिये हैं। दशम स्कन्ध के आदि, अन्त और मध्य में बहुत सी ऐश्वर्यपूर्ण घटनाओं का वर्णन किया गया है।

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