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वह चार श्लोक जिनको विस्तृत करके श्रीमद्भागवत महापुराण की रचना हुई

 वह चार श्लोक जिनको विस्तृत करके श्रीमद्भागवत महापुराण की रचना हुई।

भगवान नारायण ने ब्रह्माजी को ज्ञान दिया, केवल चार श्लोकों में, इसी को 'चतुःश्लोकी भागवत' कहते हैं। इस पर कोई कह सकता है- फिर आपको भी हमें चार ही श्लोक बताने चाहिए। अठारह हजार श्लोकों की क्या आवश्यकता है? बोले, उन्हीं चार श्लोकों को समझने के लिए अठारह हजार श्लोकों की आवश्यकता पड़ती है। अब पहले हम इन्हीं चार श्लोकों पर विचार करेंगे।
चतुःश्लोकी में ब्रह्म, माया, जगत तथा ब्रह्म प्राप्ति का साधन, इन्हीं चार विषयों का वर्णन है।
प्रथम श्लोक मे ब्रह्म का स्वरूप दर्शाया गया है। दूसरे श्लोक में माया का स्वरूप निरूपित है। तीसरे श्लोक में जगत क्या है यह कहा गया है और- चौथे श्लोक में ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति का साधन कहा गया हैं।
१- अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्।। ( श्रीमद्भागवत महापुराण २.९.३३ )
'अहं एव आसम्' और 'आसम् एवं अग्रे'। क्या सुन्दर बात है! सृष्टि के पहले केवल मैं ही था। और मैं केवल था। कैसा था, क्या था, कुछ नहीं बस केवल था। 'था' शब्द भी इसलिए कहा कि अभी हम जो सृष्टि देख रहे हैं, उसके पहले की बात कह रहे हैं। अन्यथा 'था' का भी प्रश्न आता नहीं। केवल मैं ही मै हूँ। अहं एवं- यहाँ 'अहं' शब्द से चेतनता प्रकट होती है और 'इदं' कहने से जड़ता। तो सबसे पहले 'मैं' यानी चैतन्यस्वरूप ही था, और केवल था। 'न सत्' माने स्थूल नहीं, 'न असत्' माने सूक्ष्म नहीं और सत्-असत् के परे यानी अव्यक्त भी नहीं था। केवल 'मै' निर्विशेष सत्तामात्र था।
भगवान् पहले अकेले थे, सजातीय-विजातीय-स्वगत भेद रहित अकेले ही थे यह तो ठीक है। लेकिन अब सृष्टि बन गयी है, तो लगता है वे अनेक हो गए हैं। बोले - नहीं, जब पहले मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं था, तो इस समय भी, जब मैं ही सर्वरूप बना हुआ हूँ, अब भी दूसरी कोई चीज नहीं हो सकती।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्।। ( श्रीमद्भागवत महापुराण २.९.३३ )
अब जो सामने दिखाई दे रहा है, वह भी मैं ही हूँ और यह सृष्टि जब लीन हो जाती है, तब भी मैं ही रहता हूँ। 'योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्' जो बाकी रह जाता है वह भी मैं ही हूँ देखो, यहाँ आपको बता देते हैं- वास्तव में तो वेदान्त का ज्ञान कराने के लिए यह एक ही श्लोक पर्याप्त है।
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्। ( श्रीमद्भागवत महापुराण २.९.३३ )
'अहमेवासम्' और 'आसमेवाग्रे' यदि वेदान्त का ज्ञान हो, तो यह श्लोक आपके मन को मुग्ध कर देगा। इसके आगे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रहेगी। 'अहम् एवं आसम्' और 'आसमेवाग्रे'। आत्मा ही केवल था और दूसरी कोई चीज नहीं थी। सत्तामात्र चैतन्य, चेतन, सत्ता, यह भगवान का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप, भगवान का ब्रह्मस्वरूप है। ब्रह्म का स्वरूप दर्शाने के बाद, अब कहते हैं कि माया क्या है।
नारायण भगवान जैसे गुरुदेव और ब्रह्माजी जैसे शिष्य थे, अतः चार श्लोक उनके लिए काफी थे। चार श्लोक नारदजी के लिए भी पर्याप्त थे। लेकिन नारदजी से ब्रह्माजी ने कहा 'विपुली कुरु'- इसका विस्तार करो, इसको बढ़ाओ। फिर नारदजी ने व्यासजी से यही कहा। व्यास भगवान तो इस कार्य में और भी कुशल हैं। उन्होंने विस्तार कर दिया, और शुकदेव जी से, उसे और बढ़ाने को कहा। इस विस्तार कार्य में शुकदेवजी व्यास भगवान से भी कुशल निकले। इस प्रकार यह बढ़ता चला गया। लेकिन मूल में तो केवल ये चार ही श्लोक हैं।



२- ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः।। ( श्रीमद्भागवत महापुराण २.९.३४ )
यही माया है। पदार्थ का न होकर भी दिखाई देना - जैसे रस्सी में साँप का दिखाई देना वहाँ साँप है नहीं 'ऋतेऽर्थं प्रतियेत' वह बिना पदार्थ के ही दिखाई देता है। लेकिन 'न प्रतीयेत चात्मनि' - वह किस कारण से दिखाई देता है? रस्सी के अज्ञान के कारण। अज्ञान आपको दिखाई देता है क्या? नहीं। फिर भी वह है न? हाँ है। उसी के कारण दिखाई दे रहा है। पदार्थ है नहीं, परन्तु वह दिखाई नहीं दे रहा है, 'यथाऽऽभासः' अज्ञान है, परन्तु वह दिखाई नहीं दे रहा है, 'यथा तमः'। यह भगवान की माया - 'तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः'।
'तम' माने अज्ञान, अन्धकार। वह है परन्तु दिखाई नहीं देता। रस्सी के अज्ञान के कारण साँप दिखाई देता है। हमको तो, न अज्ञान दिखाई देता है, न रस्सी दिखाई देती है, केवल साँप दिखाई देता है जो है नहीं। विस्मयकारी माया है कि नहीं? यह भगवान की माया है। जब हम भगवान को ही देखने लगेंगे, तो समझ में आने लगेगा कि माया कुछ नहीं है। तब अज्ञान है, यह कहना भी विचित्र बात ही जाएगी। जब पदार्थ नहीं होकर भी दिखाई देता है, तो समझाने के लिए कहते हैं कि माया है। अन्यथा, माया नाम की भी कोई चीज़ नहीं है। यह बड़ी विचित्र बात है कि यह माया केवल आभासरूप है। कहीं पर दिखाई नहीं देती। पता नहीं कहाँ पर है, परन्तु सारा खेल कराती रहती है। यह दूसरा श्लोक हुआ माया के विषय में।
३- अब तीसरे श्लोक में जगत का निरूपण है। बोले - जगत क्या है? जगत का वर्णन करना भी बहुत कठिन काम है। पता नहीं यह है भी कि नहीं, और यदि है तो कैसा है?
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ।। ( श्रीमद्भागवत महापुराण २.९.३५ )
यह जगत कैसा है? किससे बना हुआ है? पंचमहाभूतों से बना है। यहाँ जितनी चीज़ें है, उनमें पंचमहाभूत हैं या नहीं हैं? बोले, हाँ है। क्या वास्तव में पंचमहाभूतों ने सभी चीजों में प्रवेश किया है? प्रवेश किया है, ऐसा नहीं कह सकते। मिट्टी का घड़ा बनाया जाता है, तो पहले घड़ा बन गया और बाद में उसमें मिट्टी ने प्रवेश किया, ऐसा नहीं कह सकते। जब घड़ा नहीं था, तब भी मिट्टी थी। और घड़े के रूप में भी मिट्टी ही हैं। अतः ऐसा नहीं कह सकते कि मिट्टी ने घड़े में प्रवेश किया। अच्छा, प्रवेश नहीं किया, यह भी नहीं कह सकते। प्रवेश नहीं किया तो घड़ा कहाँ रहने वाला है। प्रवेश किया, ऐसा कहने के लिए घड़े को मिट्टी से भिन्न कुछ और होना पड़ेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि 'घड़ा' यह केवल एक नाम है, लेकिन वह है मिट्टी ही।
नारायण भगवान ब्रह्माजी से कहते हैं इसी प्रकार केवल एक 'मैं' ही हूँ। मुझे आपने एक नाम दे दिया - जगत। बस! सारे जगत में मैंने ही प्रवेश किया है। इस संदर्भ में गीताजी में बड़ी सुन्दर बात कहीं गई है- 'मया ततमिदं सर्वं' यह जगत मेरे द्वारा व्याप्त है। सब मुझमें है। बाद में कहते है, मुझमें कुछ भी नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि जिसको जगत कहते हो, वह भी आभास ही है। जिसको माया कहते हो, वह भी आभास है।
जिसको जीव कहते हो वह भी जगत के अन्तर्गत है, अतः वह जीव भी आभास है आभास ही आभास है, उस परमात्मा का भास कहीं हो नहीं रहा है। तो फिर उस परमात्मा का भान कैसे हो? इसके लिए साधन क्या है? चौथे श्लोक में परमात्म प्राप्ति का साधन बताया गया है।
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा।। ( श्रीमद्भागवत महापुराण २.९.३६ )
अब कहते हैं, अन्वय और व्यतिरेक की प्रक्रिया से इस परम तत्त्व को जान लेना चाहिए। दुनिया में और कोई जानने योग्य चीज़ नहीं है। अन्वय-व्यतिरेक का अर्थ है- जब घड़ा है, तब मिट्टी है यह अन्वय हुआ। 'अन्वय' माने होना। जब घड़ा नहीं है तब भी मिट्टी है, यह हुआ व्यतिरेक। घड़े का 'व्यतिरेक'- अभाव होने पर भी मिट्टी तो है ही।
अब घड़े से मिट्टी को अलग कैसे समझें? घड़ा है तो मिट्टी है और घड़ा नहीं है, तब भी मिट्टी है। अन्वय-व्यतिरेक यह एक प्रक्रिया है। दूसरी पद्धति है- जब मिट्टी है तब घड़ा है। जब मिट्टी नहीं है तो घड़ा भी नहीं है, अर्थात जिसके होने से चीज़ हो, और जिसके नहीं होने से चीज़ भी न हो। हालाँकि जिसके नहीं होने से चीज़ नहीं है, यह मिट्टी के बारे में बोल सकते है (क्योंकि मिट्टी का नहीं होना बन सकता है), लेकिन आत्मा के बारे में ऐसा नहीं बोल सकते।
आत्मा नहीं है, ऐसा नहीं कह सकते। कहने वाला कौन होगा? वह आत्मा ही होगा। इसलिए इस प्रकार का वाक्य कभी बनता नहीं है। लेकिन एक बात है, जब यह लगता है कि जगत है तब उसमें मैं हूँ ऐसा भासता है। परन्तु जब जगत का भाव नहीं होता, तब भी 'मैं' होता है। आपकी जाग्रत अवस्था में चेतन है या नहीं? है। स्वप्नावस्था में भी चेतन है। उस समय जाग्रत अवस्था है? नहीं है। स्वप्नावस्था में चेतन तो है, परन्तु जाग्रत अवस्था नहीं है। आप निद्रावस्था में चले गए, वहाँ जाग्रत अवस्था है? नहीं है।
स्वप्न अवस्था है? नहीं है। लेकिन चेतन है। अर्थात् निद्रावस्था में न जाग्रत अवस्था है न ही स्वाप्नस्था, केवल चेतन है। क्योंकि चेतन ही सभी अभावों को प्रकाशित करता है। और समाधि की अवस्था में तो निद्रावस्था भी नहीं होती, लेकिन 'मैं' हमेशा रहता है।
आप पूरी भागवत पढ़ें न पढ़ें, इन चार श्लोकों को प्रतिदिन पढ़ते रहना चाहिए। इनको याद कर लेना चाहिए।
इस प्रकार भगवान नारायण ने ब्रह्माजी को यह ज्ञान दिया। तत् पश्चात ही, ब्रह्माजी पूरी तरह से सृष्टि कार्य करने में समर्थ हुए। इसके बाद, यह ज्ञान उन्होंने नारदजी को दिया।
शुकदेवजी परीक्षित से कहते हैं- तुमने पूछा था, नारदजी ने यह ज्ञान किसको दिया? तो नारदजी ने यह ज्ञान मेरे पिता वेदव्यास जी को दिया, और पिताजी ने मुझे दिया। वही यह भागवत पुराण है।

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